श्रीमद्भगवदगीता : सृजनात्मक जीवन का आदर्श
डॉ देशराज सिरसवाल
सारांश
वर्तमान समय में बढती हुए अस्थिरता , निराशा और
अनिश्चितता में व्यक्ति अपने आपको थका हुआ महसूस कर अपनी सृजनात्मक शक्ति को खोता
जा रहा है. कुछ तो परिस्थितियों की मार, चाहे वह भावनात्मक, शैक्षिक या आर्थिक
क्षेत्र की हों और कुछ उचित मार्गदर्शन के अभाव में जिन्दगी के प्रति
प्रतिक्रियावादी होकर अन्तर्मुखता का शिकार होता जा रहा है. अनिश्चितता ने उसके मन
में इतनी गहरी पैठ की है,कि वे पूर्ण समर्पण भाव से किसी काम को नहीं कर रहे बल्कि
“कैरियर” के लिए उन्हें जो भी सम्भावित लगता है, उसी की तरफ़ भाग खड़े होते हैं,
चाहे वह उनकी योग्यता, रूचि के अनुरूप भी
न हो. ऐसे में तब हम कैसे उम्मीद लगा सकते हैं कि वे अपनी सृजनात्मकता और मौलिकता
को बचा सकेंगें और समाज व राष्ट्र के लिए कुछ महत्वपूर्ण कर सकेंगें ? आज आवश्यकता इस बात की है कि हम अपने
आप को कैसे तैयार करें ? जिससे शिक्षा, व्यवसाय और समाज के विकास में कुछ
महत्वपूर्ण योगदान दे सकें. इसके लिए मुझे श्रीमदभगवदगीता के दर्शन से महत्वपूर्ण
कुछ दिखाई नहीं देता. श्रीमदभगवदगीता
मानवीय जीवन के मूल्यों का आदर्शग्रन्थ है. इस संसार के हर व्यक्ति में दिव्यता को
प्राप्त करने की क्षमता है. हर मनुष्य का कर्तव्य है की वह इस दिव्यता जो पहचाने
और अपने सामाजिक जीवन में निर्धारित उद्देश्यों को पूरा करे. जीवन का मुख्य
उद्देश्य अपने कर्तव्यों और उत्तरदायित्वों को पूरा करने के साथ साथ सभी मानवों के
सह-आस्तित्व को स्वीकार करना भी है. अपने
कर्म के प्रति समर्पित भाव रखते हुए,
आत्मकेन्द्रित
न होते हुए,
उसे
कर्तव्य के रूप में समाज के प्रति समर्पित करे तो वह पूर्णता को प्राप्त हो सकता
है. प्रस्तुत शोध पत्र का मुख्य विषय श्रीमद्भगवदगीता के उन्हीं आदर्शों की ओर
इंगित करना है, जो वर्तमान समय में मानव की सृजनात्मकता को बनाये रखने में
महत्वपूर्ण योगदान दे सकते हैं.
Note: To be presented at 4th International Seminar on Universal Welfare and the Eternal Philosophy of Bhagvad Gita to be held on 3-5 December, 2019 at Kurukshetra